Education Problem : प्रतिस्पर्धा के इस युग में वर्तमान शिक्षा प्रणाली केवल अंक की मशीन बनकर रह गई है। इस आर्टिकल के जरिए हम आपको वर्तमान शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत अंकों के पीछे भागने वाले समाज और समानांतर शिक्षा व्यवस्था से रूबरू कराने वाले हैं। हम आपको बता दे कि यह आर्टिकल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस द्वारा नहीं लिखा गया है। बल्कि अनुभवी लेखक एके पांडेय द्वारा लिखा गया है।
शिक्षा में व्यावहारिक और सामाजिक समस्या पर चर्चा (Education Problem in india)
शिक्षा में व्यावहारिक और सामाजिक समस्या पर चर्चा (Education Problem in india)
इसमें कोई दो राय नहीं है कि भारत की सरकारी शिक्षा नीति कुशल शिक्षा और नई शिक्षा को बढ़ावा दे रही है। इसके लिए नई शिक्षा नीति 2020 लाई गई है लेकिन लगातार शिक्षा में हो रहे सुधार क्या जमीनी स्तर पर हो पा रहे हैं? क्या लोग की सोच शिक्षा व्यवस्था को हाशिये पर धकेल रही है? इस पर हम चर्चा इस आर्टिकल के जरिए करने जा रहे हैं। ‘नई शिक्षा नीति’ भारत के विकास में एक नया अध्याय जोड़ने वाली है लेकिन क्या सामंतवादी सोच शिक्षा को बाजार तंत्र का माध्यम बना रही है? इन सब बातों को आधुनिक परिवेश में समझाने की कोशिश यह आर्टिकल कर रहा है।
अंकों के पीछे भागने वाली शिक्षा-प्रणाली
हालांकि नई शिक्षा नीति में अंकों के महत्व को ग्रेड में बदल दिया गया है, लेकिन समाज में अंक के महत्व की महत्वाकांक्षा नई कहानी रच रही है। जब आप बोर्ड परीक्षा या किसी मेडिकल या इंजीनियरिंग परीक्षा के रिजल्ट के बाद टॉपर की सूची वाला विज्ञापन अखबार के पन्नों और होर्डिंग पर देखते हैं तो आप जरूर सोच उठते होंगे हमारी शिक्षा प्रणाली हमें रेस का घोड़ा बनाने पर ध्यान देता है। दरअसल कोई परीक्षा किसी भी व्यक्ति का आकलन नहीं कर सकती है। परीक्षा मे असफल परीक्षार्थी अंको की एक इह दौड़ में खुद को पिछड़ा हुआ समझता है; जबकि शिक्षा प्रणाली में परीक्षा पैटर्न को समझने वाला अच्छे अंक जरूर हासिल कर सकता है। इसका मतलब यह नहीं कि वह अपने सिलेबस के हर पहलू को बेहतरीन ढंग से समझ पाया हो। शिक्षा में बाजारवाद के विभिन्न पहलुओं का असर अंक प्रणाली (marking system) पर भी पड़ा है।
असल में आज हम आपको शिक्षा में एक वर्ग के एकाधिकार और सामंतवादी सोच के बारे में इस आर्टिकल में चर्चा करने जा रहे हैं।
शिक्षा में चरित्र निर्माण का उद्देश्य मोरल साइंस की सिलेबस तक सीमित
शिक्षा व्यवस्था (education system) में शिक्षण संस्थान अध्यापक और अभिभावक की अहम भूमिका होती है। लेकिन नई शिक्षा प्रणाली के लाभों को तब तक यह समाज हासिल नहीं कर सकता है, जब तक हम शिक्षा की मूल भावना को ना समझें। दरअसल शिक्षा का अर्थ होता है बालक-बालिकाओं को कौशल (Skill Education) बनाना और उनका चरित्र निर्माण करना। लेकिन मोरल साइंस की पुस्तक द्वारा दिया गया नैतिक शिक्षा एक असफल प्रयास व्यावहारिक रूप से नजर आ रही है। व्यवहारिक कुशलता और चरित्र निर्माणदियन नहीं दिया जा रहा है। सिद्धांतों को रटाया जा रहा है। बच्चों की कौशल विकास देने शिक्षा तंत्र विफल हो रही है।
आज विद्यार्थी को प्रतिस्पर्धा की मशीन बनाकर समाज एक ऐसे अभिभावक के रूप में अध्यापक के रूप में सामने आ रहा है जो केवल बच्चों को मशीन बना रहे हैं। नई शिक्षा नीति जहां कौशल के साथ चरित्र निर्माण की बात करती है तो वही हमारे समाज के चंद सामंतवादी लोग शिक्षा को बाजार की वस्तु बनाने पर आमादा है। इस बात को सही रूप से साबित करने के लिए निम्नलिखित तर्क आपके सामने प्रस्तुत है-
शिक्षा में अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व
दरअसल पूरे भारतीयों की भाषा भारत की क्षेत्रीय भाषा है जिसमें हिंदी और क्षेत्रीय भाषाएं प्रमुख हैं। लेकिन सामंतवादी सोच के पूंजीपति केवल अंग्रेजी को ही भाषा का वर्चस्व मान रहे हैं। जिसका रिफ्लेक्शन समाज में पड़ रहा और बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में शिक्षित करने की होड़ उनके अभिभावकों और अध्यापकों द्वारा किया जा रहा है। किसी भी बच्चों में अनुशासन और नैतिक शिक्षा उसकी मातृभाषा में यदि दी जाए तो वह नैतिक रूप मजबूत और अनुशासित नागरिक बनता है। कई तरह के रिसर्च से यह बातें सामने आई हैं। दरअसल मातृभाषा में शिक्षा बचपन में ऐसा प्रभावशाली असर डालता है जिससे बच्चों में नैतिक और अनुशासन का विकास आसानी से हो जाता है।
मातृभाषा में शिक्षा व्यवस्था को नकारा जा रहा, सामंतवादी सोच अंग्रेजी के वर्चस्व के साथ खुद को प्रतिस्पर्धा में बनाए रखना चाहता है
इस बात को इस तरह से समझना चाहिए कि अगर बच्चों को उनके मातृभाषा से अलग किसी विदेशी भाषा में शुरुआती शिक्षा दी जाती है तो उस भाषा में बताई गई नीतिगत बातें और अनुशासन से बच्चे परिचित नहीं हो पाते हैं। दरअसल इस उम्र में विदेशी भाषा के शब्दों और संस्कृति की समझने की क्षमता उनमें नहीं होती है।
दूसरे शब्दों में कहें तो अपनी मातृभाषा के अलावा किसी और भाषा के प्रति उनके शब्द-ज्ञान और प्रतीक-चिह्न का विकास इतनी कम उम्र में नहीं हो पता है। जब किसकी तुलना में अपनी मातृभाषा में बच्चा अपने समाज परिवार से जुड़ चुका होता है। इसलिए दादी नानी की मातृभाषा में सुनाई गई कहानियां उनमें नैतिक विकास और अनुशासन के गुण विकसित करता है।
यही वजह है कि शिक्षा-विद्वान शुरुआती शिक्षा मातृभाषा में देने की वकालत करते हैं। यह बात बिल्कुल सत्य है और आपने अपने अनुभव में भी देखा होगा कि शुरुआती शिक्षा मातृभाषा से अलग यदि किसी बच्चे को दी जाती है तो उसमें नैतिक विकास और अनुशासन का विकास उतना नहीं हो पता है, जितना किसी मातृभाषा में शुरुआती दौर में सीखने वाली बच्चों के अंदर होता है।
इस तरह से अनुशासन और नैतिक बल जब कमजोर हो जाती है तो वह बालक एक तरीके से विदेशी भाषाओं में जकड़ा हुआ एक ऐसा इंसान बनता है जो अपनी माटी और संस्कृति से जुड़ नहीं पता है।
दरअसल इस बात को मैं बिल्कुल स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि विदेशी-भाषा पढ़ना कोई बुराई नहीं है। लेकिन अपनी संस्कृति और अपनी भाषा को ताक में रखकर अगर हम विदेशी भाषा को ही महत्व देंगे तो आम भारतीयों के साथ अन्याय होगा जो अपनी भाषा में दिनचर्या और जीवन व्यतीत करते हैं, रोजगार करना चाहते हैं और नौकरी से जुड़ना चाहते हैं।
अगर आपको सुंदर और बेहतरीन फर्नीचर बनवाना होता है तो किसी कुशल शानदार कारपेंटर की आवश्यकता होती है। उससे अंग्रेजी भाषा में बातचीत नहीं करते हैं बल्कि उसकी भाषा में बातचीत करते हैं। तब वह बेहतरीन फर्नीचर आपकी जरूरत अनुसार बनाता है।
इसी तरीके से डॉक्टर से कोई मरीज बात करता है, तो मरीज से डॉक्टर अच्छी तरीके से तभी कनेक्ट हो सकता है, जब डॉक्टर मरीज की भाषा डाक्टर समझता है। इसी तरीके से यदि कोई सरकारी अफसर है और वह स्थानीय लोगों की सेवा में लगा हुआ है तो उसे उस स्थान की भाषा की भली भांति जानकारी होनी चाहिए, तभी वह लोगों की समस्या का सही समाधान कर सकता है।
हम किसी भी कारण से अपनी भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी की तुलना में कमतर नहीं आंक सकते हैं। कहने का अर्थ यह है कि किसी देश की पहचान उसकी भाषा और उसकी संस्कृति होती है।
सामंतवादी सोच शिक्षा के साथ कर रहे हैं खिलवाड़
भारत में आम लोग अंग्रेजी भाषा का ज्ञान नहीं रखते हैं। लेकिन उन्हें न्याय पाने के लिए अंग्रेजी पर निर्भर रहना पड़ता है। इसी तरह से विज्ञान और तकनीकी की भाषा में अंग्रेजी का वर्चस्व है। आम व्यक्ति कौशल हासिल करके अपने बिजनेस या नौकरी करना चाहता है, उसके पास अंग्रेजी की अनिवार्यता होनी जरूरी होती है। यह बहुत ही हास्यास्पद है, वह अपने ही देश में विदेशी भाषा सीखकर ही नौकरी पा सकता है। यही कारण है कि अंग्रेजी भाषा का महत्व शिक्षा के बाजार में बहुत बड़ी है।
केवल अंग्रेजी ही नहीं विज्ञान की पढ़ाई का बाजार भी बहुत तेजी से शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ा है। बात विदेशी भाषा अंग्रेजी की हो या विज्ञान के क्षेत्र की पढ़ाई की हो, इसमें कोई बुराई नहीं है। दूसरा पहलु यह है कि जबरदस्ती की भेड़चाल वाली अंग्रेजी-शिक्षा शिक्षक और अभिभावक बच्चों को देने की जोर जबरदस्ती करते हैं तो यह तरीका बालक के मनोविज्ञान पर नकारात्मक प्रभावद डालता है। इस तरह से समाज द्वारा थोपी गई अंग्रेजी की वकालत करने वाली एजुकेशन सिस्टम एक बुराई बन जाती है।
हर बालक और बालिका का सपना अलग-अलग होता है। उनकी योग्यताएं अलग-अलग होती है लेकिन अंग्रेजी और विज्ञान की पढ़ाई के दबाव के कारण वह अपने सपनों को बुन नहीं पाते हैं।
दरअसल समाज और उनके अभिभावक द्वारा यह दबाव बनाया जाता है की सबसे अधिक धन किस प्रोफेशन में है, इस पढ़ाई करो। कई ऐसे मामले आए हैं जिसमें पता चला है कि बच्चों की रुचि डॉक्टर या इंजीनियरिंग में नहीं रही है लेकिन फिर भी वह अपने माता-पिता के दबाव के कारण इस क्षेत्र को चुनाव और इसमें लगातार असफलता हासिल कर रहे हैं। दरअसल हर बच्चे के अंदर एक टैलेंट होता है। इस टैलेंट को समझना परखना जरूरी होता है। अभिभावक और शिक्षक मिलकर बच्चों के टैलेंट को यदि समझ लेते हैं और उसे अनुसार उन्हें आजाद पंछी की तरह अपने करियर को चुनने की आजादी दे देते हैं निश्चित ही वह बच्चा अपने क्षेत्र में बहुत उन्नति करता हुआ नजर आता है। ऐसे कई उदाहरण इतिहास में देखे गए हैं। कोई समाज क्षेत्र में सफलता की कीर्तिमान इसलिए दर्ज कर पता है कि उसे बचपन से इस क्षेत्र में लगाओ रहा है और इस क्षेत्र को कैरियर बनाने के रूप में उसे स्वयं चुनाव है।
करिअर चुनने के लिए दबाव न बनाएं
भारत के महान पक्षी- विज्ञानिक सालीम अली के जीवन को निहारे तो उससे पता चलता है कि बचपन की एक घटना ने उन्हें एक महान पक्षी-विज्ञानिक (Bird Watcher) बना दिया। बचपन में उनके द्वारा चलाए गए एयर गन से घायल गौरैया के प्रति वे इतना भावुक हो गया कि घायल गौरैया के इलाज के लिए जी जान से जुट गए। गौरैया ठीक हो गई लेकिन बालक सालीम अली पक्षियों से प्रेम कर बैठे। उन्होंने अपने जीवन को पक्षियों के लिए समर्पित कर दिया। चिड़ियों को समझने के लिए उनके बारे में अधिक जानकारी के लिए सालिम अली पक्षी-विज्ञानिक बन गए।
दरअसल करियर किसी के दबाव में नहीं बनता है। बच्चों की पसंद और उसकी नैसर्गिक क्षमता ही उसे महान विज्ञानिक या महान साहित्यकार बनाता है। शिक्षक और अभिभावक कौन होते है? जो किसी बच्चे के करियर को डिसाइड करें। बल्कि वे मार्गदर्शन के रूप में बच्चों के कैरियर सुनने में सहायक हो सकते हैं। नैसर्गिक प्रतिभा को निखार कर कौशल युक्त बनाकर जीवन को संवार सकते हैं।
अंकों के पीछे भागने वाली शिक्षा प्रणाली
परंतु आज की शिक्षा प्रणाली अंकों (Mark’s) की दौड़ की बेलगाम सवारी कर रही है। वहीं दूसरी ओर आज की शिक्षा प्रणाली कौशल युक्त शिक्षा (skill education) के साथ ही बच्चों को विभिन्न सांस्कृतिक ज्ञान, भाषाओं के ज्ञान, नैतिक आत्मबल और अनुशासन से जोड़ती है। परंतु इस शिक्षा प्रणाली को अपने ढंग से चलने के लिए समाज के कुछ सामंतवादी सोच पूंजीवादी शिक्षा को बढ़ावा दे रहे हैं।
शिक्षा में नव-सामंतवादी सोच का प्रभाव
जैसा कि आपको मालूम है, भारत की आजादी से पहले राजा, नवाब, जमींदार जैसे लोग का बड़ा महत्व रहा है।
यह आम लोगों पर शासन करते थे और स्वयं बहुत ही एशो आराम की जिंदगी जीते रहे हैं।
जैसे ही भारत आजाद हुआ इन सामंतवादी सोच के लोग के लिए लोकतंत्र खतरा बनने लगा। दरअसल लोकतंत्र आजाद भारत के सभी निवासियों को समान रूप से देखती है।
लेकिन सामंतवादी इन राजा, महाराजा, नवाब जमींदार जैसे लोग को यह बात उस जमाने में पचती नहीं कि आम लोगों को स्वतंत्रता और समानता का अधिकार मिले। कथितसामंतवादी सोच के इंसानों को मजबूरन नए सांचे में ढलना पड़ा, लेकिन वे पीढ़ी दर पीढ़ी सामंतवादी सोच से स्वयं को अलग नहीं कर पायें है।
नव- सामंतवादी कहलाने वाली पूंजीवादी लोग आज भी लोकतंत्र में स्वयं को उन्हीं के पुरखे मानते हैं। शिक्षा व्यवस्था में पूंजीवादी शिक्षा व्यवस्था को बढ़ावा ऐसे ही धनी और प्रभुत्वशाली लोग दे रहे हैं। उनको प्रतिस्पर्धा से कोई मतलब नहीं है उनकी प्रतिस्पर्धा केवल धन केवल पर शिक्षा और संस्थाओं को खरीद लेने से है।
यह सामंतवादी सोच के लोग आज के आजाद भारत के लोकतंत्र में पूंजीपति और नवधनिक रूप में आपके आसपास दिखाई दे सकते हैं। शिक्षा पर एकाधिकार जताने वाले और अपने आप को सर्वश्रेष्ठ बताने वाले ऐसे लोग सोशल मीडिया में मिल जाएंगे। समाज में ऐसे लोग स्वयं को बेहतर और शिक्षित बताने गर्व महसूस करते हैं लेकिन आरक्षण व्यवस्था को अपना दुश्मन मानते हैं। दरअसल यह कल्याणकारी राष्ट्र व्यवस्था को मानने से इनकार करते हैं। यह सामंतवादी चेहरे किसी भी कल्याणकारी व्यवस्था जो दबे कुचले लोगों को ऊपर उठाने का प्रयास करने वाले लोकतांत्रिक नियम है उसके खिलाफ हो उठते हैं। यही वजह है कि शिक्षा में आमूल चूल परिवर्तन होने में काफी समय बीत गया है। कथित सामंतवादी चेहरे शिक्षा में एकाधिकार जमा कर अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग, आर्थिक रूप से कमजोर तबके लोग के हिस्से को हड़प रहे हैं। असल में सामंतवादी व्यवस्था किसी जाति के आधार पर देखना भी उचित नहीं है। दरअसल नए धनिक वर्ग समाज में नजर आ रहा है लेकिन उसके अंदर का वह सामंतवाद इस तरीके से पल बढ़ रहा है। इसलिए आरक्षण जैसी व्यवस्था भी सही उपचार नहीं है। दरअसल इस व्यवस्था में एक ऐसी कमी है, जो नए सामंतवादी इन्हीं वर्गों में से पैदा कर रहा है जो बिल्कुल पुराने सामंत वर्ग जैसे ही हैं।
दरअसल सबका साथ सबका विकास जैसे नारे चाहे राजनीति में कितने भी घूम रहे हो। परंतु सामंतवादी चेहरे जो पूंजीपतियों को बढ़ावा देने वाली सरकारें पूंजी पतियों के लिए पोषक का कार्य करते रहे हैं। इसीलिए आर्थिक असमानता बहुत तेजी से बढ़ने लगी है। प्रभावशाली नीतियां सरकार द्वारा लागू की जाती है लेकिन यह नीति केवल हाथी के दांत की तरह नजर आती है। दरअसल नीतियां उन सर्वे पर आधारित होती ही नहीं है चंद लोगों के लिए बनने वाली यह नीति पूरी शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन लाने वाली होनी चाहिए। शिक्षा में भेदभाव एक ऐसे असंतोष वर्ग उत्पन्न कर रही है जो नव सामंतवादी और पूंजी पतियों के खिलाफ को खड़ी हो रही है।
शिक्षा में सुधार की आवश्यकता
वर्तमान शिक्षा प्रणाली में सुधार तभी प्रभावशाली हो सकता है जब शिक्षा के निजीकरण के स्थान पर सरकारी शिक्षा की उत्तम व्यवस्था सभी को एक समान प्राप्त हो। अमेरिका जैसे विकसित देशों में सरकारी शिक्षा का ढांचा मजबूती से खड़ा है। जबकि भारत जैसे देशों में निजीकरण के कारण शिक्षा बाजार के गिरफ्त में है। यानी शिक्षा में भेदभाव का यही कारण आबादी के 95% लोगों के लिए दोयम दर्जे की शिक्षा ही उपलब्ध है दरअसल उनके पास इतनी पूंजी नहीं है कि वह महंगी शिक्षा को हासिल कर सके। हालांकि इन विषयों पर किसी तरह की सर्वे या सैंपलिंग सरकार द्वारा उपलब्ध नहीं कराई जाती है लेकिन प्राइवेट संस्थानों के सर्वे और आप अपने अनुभव से इस बात का अंदाजा आसानी से लगा सकते हैं।
दरअसल राजनीति चाहती है कि उसका वोट बैंक उसे किसी तरह का सवाल न पूछे। उनके विशिष्ट मतदाता जाति और धर्म के जकड़न में जकड़ा रहे, बस उनके नेताओं को लालच और पद प्रतिष्ठा देकर ऐसे वोट बैंक को राजनीतिक पार्टी अपनी तरफ आसानी से खींचती रहे यही व्यवस्था दशकों से चली आ रही है। इसीलिए शिक्षा व्यवस्था में मैकाले पद्धति वाली शिक्षा व्यवस्था आज तक आजादी के बाद भी कायम है।
आजादी के बाद सामंतवादी चेहरे जो जमीदारी नवाबों के रूप में रहे हैं उन्होंने अपना चेहरा बदल लिया है। नवमांतवादी चेहरों में यह आपके आसपास राजनीतिक चेहरों के रूप में या फिर दबंग के रूप में नजर आते हैं। राजनीति अस्थिरता को उत्पन्न करते हैं और लोकतांत्रिक भावनाओं को चकनाचूर करते रहते हैं। मीडिया की भूमिका भी इधर 10 साल से लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप से अलग हटकर प्रचार तंत्र का हिस्सा बन गया है। विकसित देशों की मीडिया को आज आप देख लीजिए। अपने देश की सरकार की कमियों की आलोचना करने से भी घखबराते नहीं है। आम नागरिक के हितों की रक्षा करते हुए उनकी पत्रकारता वास्तव में देश हित के लिए होती है। परंतु जहां पत्रकारिता केवल सरकारी तंत्र की बड़ाई करती हुई नजर आती है, तो वह मीडिया सरकार के खिलाफ कैसे अपनी पत्रकारिता कर सकती है यह एक बड़ा सवाल हर नागरिक के मन में जरूर उठना है।
बरहाल शिक्षा प्रणाली चाहे जितनी भी दुरुस्त बना ली जाए या शिक्षा व्यवस्था को चाहे जितना बेहतर बना लिया जाए लेकिन नियमों का सही से पालन करवाने की सफलता आखिरकार सरकार पर ही होती है। सटल घरेलू उत्पाद के 6% भी शिक्षा में यदि खर्च नहीं होता है तो कैसे आप समझ सकते हैं कि शिक्षा के प्रति सरकारी बहुत ही सांजिदा है। दरअसल शिक्षा एक ऐसी जागरूकता है जिसके आने से नव सामंतवादी व्यवस्था को बैक फुट पर जाना होगा। इसलिए शिक्षा की जागरूकता को एक लेवल तक सोची समझी रणनीति के तहत उसे खत्म करने की कोशिश की जा रही है इसका उदाहरण सरकारी मुफ्त क्वालिटी वाली शिक्षा को बंद करके, शिक्षा में निजीकरण को खूब बढ़ावा दिया जा रहा है। अभी हाल फिलहाल में मेडिकल परीक्षा नीट में धांधली की खबरों के बाद इस बात से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि लाखों रुपए में बिकने वाले प्रश्न पत्र आखिर खरीदने वाला कौन हो सकता है? वही नव सामंतवादी चेहरे जो अपने धन और बहुबल से इस लोकतंत्र में भ्रष्टाचार की जड़े जमा जा रहे हैं ताकि उनकी व्यवस्था चलती रहे।
राजनीति में अपना एकाधिकार उन कमजोर तबके को डरा कर लेते हुए नजर आ रहे हैं
जिनका वर्चस्व किसी राजनीतिक दल में क्या किसी राजनीतिक दल को प्रभावित करने वाले सामाजिक संगठन पर होता है। इस सामंतवादी लोगों का एक अपडेट वर्जन ऐसे धनिक लोग हैं, जो किसी सामाजिक या राजनीतिक आयोजन के पीछे सब कुछ खरीद लेने की अपनी हैसियत को दिखाने वाले होते हैं। दरअसल यह बहुत ही प्रभुत्वशाली लोग हैं, सत्ता शासन में उनकी बहुत बड़ी पकड़ होती है, ऐसा मानकर स्वयं को वे प्रकट करते हैं। लेकिन आधुनिक युग में शिक्षा एक ऐसा अधिकार है जिसका प्रयोग अब आम हिंदुस्तानी अपनी आत्म सम्मान और अपने अधिकार के लिए करना सीख गया है।
सामंतवादी सोच शिक्षा के लिए बाधा
दबे कुचले वर्ग ने भी शिक्षा को लोकतंत्र में हासिल कर लिया है। वे अपने समाज को आगे बढ़ाने की भरसक कोशिश कर रहे हैं। आजादी के समय जो नवाब, राजवाड़े, जमीदार अंग्रेजों के एक इसारे पर हिंदुस्तानियों हुकूमत करते थे, आजादी के बाद उनका वर्चस्व खत्म हुआ। परंतु कहानी यहीं खत्म नहीं होती है। दरअसल धन और जातिवाद के कारण ऐसे लोग प्रभुत्वशाली लोग राजनीति का हिस्सा बन गए। कहा जा सकता है कि लोकतंत्र आने के बाद भी वही सामंतवादी विचारधारा कहीं ना कहीं अंडर करंट की तरह बह रही है।
समान शिक्षा गुणवत्ता वाली शिक्षा जैसी बातों को यह लोग स्वीकार नहीं करते हैं। क्योंकि ऐसा होने पर एक बड़ी क्रांति होना स्वाभाविक है ऐसे सामंतवादी विचारधारा के लोगों का साफ होना तय है। इसलिए बड़े-बड़े विचारकों ने कहा शिक्षा वह ताकत है, जो किसी के जीवन को बदल सकती है।
सामंतवादी सोच अपने बच्चों को मैकाले का गुलाम बना रहे हैं
भारत में अलग-अलग संस्कृति अलग-अलग भाषाएं हैं लेकिन सामंतवादी सोच केवल स्वयं को एक ही भाषा में आगे बढ़ाने में सक्षम पाते हैं क्योंकि उनके पास धन बाहुबल है। विदेश से अच्छी शिक्षा प्राप्त करके उनके बच्चे भारत के विभिन्न पूंजीपतियों के संस्थानों में बड़े-बड़े पोस्ट में काम करके अपने लिए जीविका का शानदार संसाधन खोज रहे हैं। हमें कभी नहीं बोलना चाहिए कि भारत में असमानता है। भारत में अधिकांश लोग अपनी भाषा में कौशल हासिल करते हैं। यदि उन्हें शिक्षित करना होगा तो भारतीय भाषाओं में उन्हें शिक्षित करना होगा।
इस आर्टिकल के माध्यम से शिक्षा के लिए काम करने वाले विद्वानों और सरकार में काम करने वाले व्यक्तियों का ध्यान आकर्षण करना चाहता हूं। दरअसल नई शिक्षा नीति आने के बावजूद भी शिक्षा प्रतियोगिता की दौड़ में कहीं गुम हो गई है। शिक्षा केवल अंकों के काम और ज्यादा होने की पैमाने में बच्चों के साथ अन्याय कर रही है।
नई शिक्षा नीति में अधिक से अधिक विषयों को पढ़ा देने की होड़ वाली नीति बच्चों के ऊपर बोझ डाल रही है। समाज और बाजार में किसी एक भाषा के वर्चस्व के कारण पूरी शिक्षा प्रणाली उसी की इर्द-गिर्द घूम रही है। जी हां दोस्तों बताना चाहता हूं भारत देश से की गुलामी की भाषा अंग्रेजी आज भी शिक्षा प्रणाली का वह जरिया बना है जिसमें बाजार के लिए मैकाले पलपोस रहे हैं।
भारत की आजादी में अहम भूमिका भारत के नागरिकों की रही है। भारतीय भाषा में गाये गए आजादी के तराने को कोई भूल नहीं सकता है। भारत की मिट्टी में पैदा हुए यही की भाषा यही की संस्कृति के मन को बढ़ाते हुए अपने देश की आजादी के लिए वीरगति प्राप्त करने वाले जब आज की आधुनिक शिक्षा में बढ़ती हुई अंग्रेजी का वर्चस्व देख रहे होंगे तो निश्चित ही उन्हें दुख हो रहा होगा।
भारत की भाषा से, भारत की मिट्टी में आजादी के परवाने पैदा हुए हैं, जिन्होंने हॅंसते-हॅंसते आजादी की कीमत अपनी जान से चुकाई है। भारत के आजादी के लिए मर मिटने वाले नायकों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि आजाद भारत की शिक्षा प्रणाली अंग्रेजी के आगे घुटने टेक देगी।
आजादी के दशकों बाद हम अपनी भाषा में खुद को शिक्षित करने में असफल हो रहे हैं। शिक्षा बाजारवाद की चुंगुल में फॅंसी हुई चॅंद लोगों की जेब से खरीदी गई वस्तु बन गई है। आधुनिक शिक्षा में किस तरह का खिलवाड़ किया जा रहा है इसको जानने के लिए आपको यह लेख पढ़ना जरूरी है।
शिक्षा में खेल क्यों जरूरी है
सभी खेलों को बढ़ावा देने के लिए भारत के सभी स्कूलों में खेल की कक्षाओं को व्यावहारिक रूप से लागू किया जाए। प्रत्येक स्कूल के प्रांगण में पर्याप्त स्थान खेल के लिए होना चाहिए। सरकार को जगह-जगह पर पार्क और खेल के मैदान को डेवलप करना चाहिए। खेल ही स्वस्थ जीवन का आधार है।
खेल के साथ ही विज्ञान और भाषा विषयों को बढ़ावा देने के लिए पहल करना चाहिए।
इसके साथ ही भारत सरकार से अपील करना चाहता हूं कि प्राइमरी शिक्षा से लेकर माध्यमिक शिक्षा उच्च शिक्षा की आधारशिला है। यदि शिक्षा में बाजारवाद का बोलबाला इसी तरह से रहेगा, यदि बड़ी कंजूसी से पैसा शिक्षा पर भारत सरकार खर्च करेगी, निश्चित ही शिक्षा आधी अधूरी और गुणवत्ता वाली समाज को नहीं मिल पाएगी।
इसलिए सरकार से अनुरोध है कि शिक्षा व्यवस्था पर किसी तरह की भेदभाव वाली स्थिति को दूर करें। हर समुदाय को बेहतरीन आधुनिक गुणवत्ता वाली शिक्षा प्राप्त हो इसलिए सरकार को इस और ध्यान देना चाहिए।
आज की शिक्षा अंक हासिल करने की मशीन
नई शिक्षा नीति को धीरे-धीरे लागू किया जा रहा है लेकिन नंबर की दौड़ में आज भी विद्यालय लगे हुए हैं। विद्यार्थियों का आकलन 3 घंटे की परीक्षा में अंकों के माध्यम से किया जा रहा है। इन अंकों आधार बनाकर अभिभावक अपने बच्चों का आकलन कर रहे हैं जो कि सरासर गलत है। पूरी बाजार प्रणाली शिक्षा को कुछ नंबरों में बताकर किसी को मेधावी तो किसी को औसत घोषित करने में लगी हुई है। दरअसल यह एक चाल है शिक्षा को केवल अंग्रेजी और चंद विषयों के बंधन में बांधकर एक ऐसी समानांतर शिक्षा प्रणाली व्यवस्था समाज में खड़ी की जा रही है जिसमें की कुछ अभिजात वर्ग के ही बच्चे आगे बढ़े। दलित, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग, वंचित, आर्थिक रूप से कमजोर समुदाय के बच्चे को जानबूझकर अलग किया जा रहा है। दरअसल विदेशी भाषा का चक्रव्यूह रचकर शिक्षा प्रणाली चंद लोगों के हिस्से में लाकर आम भारतीयों के साथ भद्दा मजाक किया जा रहा है। असली प्रतिस्पर्धा तब होगी जब सभी भारतीयों को गुणवत्ता युक्त शिक्षा मिले और फिर असली प्रतिस्पर्धा मानी जाएगी।