Why has homework become a problem : पूरी दुनिया में किस तरीके से होमवर्क एक समस्या बन गई है इसके बारे में भारत में भी बात होती है। दरअसल होमवर्क बच्चों के लिए एक समस्या है। शिक्षा व्यवस्था में होमवर्क एक ऐसी प्रणाली है, जो बच्चे के बचपना को छीनती है। भारत के परिपेक्ष्य में और पूरी दुनिया के परिपेक्ष में होमवर्क एक समस्या बन गई है। दरअसल बच्चे स्कूल में पढ़ाई से पहले स्कूल में आने और स्कूल में जाने तक के समय को अगर जोड़ लिया जाए तो वह 7 से 8 घंटे तक केवल पढ़ने की ही प्रक्रिया में जुड़े रहते हैं। इसके बाद अपनी दिनचर्या के बचे हुए 8 घंटे उनका होमवर्क और ट्यूशन में चला जाता है। बचे हुए 8 घंटे उन्हें आराम करने या सोने के लिए मिलता है।
स्कूल के साथ से 8 घंटे एक्टिव रहने के बाद अगर बच्चा अपने 8 घंटे में कुछ घंटे होमवर्क और कोचिंग ट्यूशन में शाम को बीतता है तो यकीन मानिए बच्चे का विकास कैसे होगा वह मानसिक और शारीरिक विकास के तराजू पर कैसे अव्वल हो पाएगा। खेलने से शारीरिक और मानसिक विकास होता है ऐसे में फिर वह चार घंटे ट्यूशन और होमवर्क में बैठ जाता है।
यही नहीं ट्यूशन के बाद फिर उसे होमवर्क मिल जाता है जो हास्यास्पद स्थित है। इस लेख के जरिए हम एजुकेशन के अलग-अलग पहलुओं के बारे में अपने विचार रखते हैं। हमारे लेखक टीम द्वारा यह विचार की आज के समय में होमवर्क किस तरीके से बच्चों की पढ़ाई में बाधा बन रही है। इसके बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं। आप हमारे इस लेख को अपने भाषण या निबंध में आइडिया के रूप में शामिल कर सकते हैं। आज शिक्षक से लेकर बच्चे और बच्चों से लेकर अभिभावक इस होमवर्क वाली कलचर से परेशान है। पढ़ाई के बाद फिर पढ़ाई करने वाली इस कलर व्यवस्था की जरूरत क्या वास्तव में है? क्या स्कूल के बाद कोचिंग यह ट्यूशन पढ़ने बच्चों के लिए जरूरी हो जाता है। यह हम यह कह सकते हैं कि हमारे स्कूल की पढ़ाई इतनी प्रभावशाली नहीं रह गई है कि बिना ट्यूशन कोचिंग और होमवर्क के बच्चा पढ़ कर अव्वल बन सके। नर्सरी से लेकर कक्षा 12वीं तक के बच्चे शाम को बस्ता लेकर ट्यूशन और कोचिंग जाते हुए दिखे होंगे आपको तो आपके मन में सवाल उठना होगा कि पढ़ने लिखने वाले के बच्चे आखिर खेलते कब है। सारा दिन स्कूल में रहने के बाद फिर 2 घंटे के लिए ट्यूशन और उसके बाद स्कूल और ट्यूशन का होमवर्क करना यही नियति बच्चों की पढ़ाई में आज के समय बनती ही चली जा रही है। इस पर विस्तार पूर्वक चर्चा अब हम आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहे हैं।
Why has homework become a problem : बच्चों के लिए होमवर्क नुकसानदायक
भारत में होमवर्क एक समस्या बनती भी जा रही है। हालांकि आपको बता दे कि यह कलचर विदेश से आया हुआ है। नर्सरी के बच्चों पर होमवर्क का इस कदर डर बना हुआ है कि वह स्कूल के आने के बाद भी डरे हुए रहते हैं और होमवर्क ना कर पाने की वजह से अगले दिन स्कूल न जाने की बहाना ढूंढते हैं। वहीं अगर कोई विद्यालय होमवर्क ना दे बच्चों को तो यह माना जाता है कि वहां पढ़ाई नहीं होती है। वही यह बात भी सामने उभर कर आती है कि कुछ अभिभावक चाहते हैं कि उनके बच्चे को होमवर्क मिले ताकि विद्यालय से आने के बाद वह अपने होमवर्क में बिजी रहे। लेकिन हमें समझना चाहिए कि बच्चों की पढ़ाई के साथ-साथ खेलकूद और सामाजिकता के लिए उन्हें स्कूल के चार दिवारी के बाद होमवर्क करने की सजा घर में अगर दी जाती है तो यह निश्चित ही बड़ी बेईमानी होगी।
अगर आप 8 घंटे अपने ऑफिस में काम करते हैं उसके बाद आप कुछ 4 घंटे का ऑफिस का होमवर्क घर पर लाकर करने को दे दिया जाए तो बताइए आप कैसे सामाजिक और पारिवारिक जीवन जी पाएंगे। 8 घंटे से अधिक काम करने के नाम पर लेकर बहुत ही बड़ी-बड़ी बातें देश में देखने को मिलती है। इसी कलचर में होमवर्क भी आता है। होमवर्क के कितने नुकसान है इसके बारे में हम आगे आपको बताने जा रहे हैं। वैसे भी नहीं शिक्षा ली थी मैं होमवर्क प्रतिबंधित है। नर्सरी क्लास के बच्चों से लेकर कक्षा पांचवी तक के बच्चों को होमवर्क देने की मनाई होती रही है लेकिन होमवर्क बिना जैसे पढ़ाई अधूरी है। यह बात हमेशा सुनने को मिलती रही है। 7 से 8 घंटे स्कूल में बिताने के बाद जब बच्चा थककर घर पहुंचता है तो वह फिर ट्यूशन और कोचिंग के चक्कर में फंस कर रह जाता है।
इसी में स्कूल से मिला हुआ हर विषय का होमवर्क अगर एक-एक पेज का है तो 6 विषय का होमवर्क 6 पेज का हो गया। प्रायमरी का बच्चा इस होमवर्क में इस तरह से फंस जाता है कि जैसे केवल वह लिखने वाला एक मशीन बन गया हो। होमवर्क में भी कोई रोचकता नहीं होती है। वही पुस्तकों से उतर कर प्रश्नों के उत्तर लिखना भरा रहता है।
मैथ के सवालों से उलझता हुआ होमवर्क आखिरकार ट्यूशन तक पहुंच जाता है। होमवर्क के मकडजाल में आखिरकार ट्यूशन का धंधा बहुत तेजी से चलता रहता है। यह बात भारत के संदर्भ में खड़ी उतरती है। दरअसल होमवर्क पद्धति के कारण बच्चे पढ़ाई के बोझ में दबे चले जा रहे हैं। होमवर्क को पूरी तरीके से कई देशों में प्रतिबंधित कर दिया गया है। भारत में भी होमवर्क देने की प्रथम धीरे-धीरे कम हो रही है लेकिन कई विद्यालय ऐसे हैं जो होमवर्क के सहारे ही बच्चों की शिक्षा व्यवस्था को चुस्त दुरुस्त बनाने का बीड़ा उठाए हुए हैं।
होमवर्क क्यों नहीं है कारगर
भाषा के शिक्षक अक्सर यह कहने में संकोच नहीं करते हैं कि जितना लिखोगे उतना ही आगे बढ़ोगे जितना बोलोगे उतना ही सीखोगे। यह सभी काम उसे भाषा के पीरियड में कक्षाओं में भी हो सकता है लेकिन जबरदस्ती का होमवर्क लिखने वाला दे दिया जाता है मौखिक होमवर्क का तो कोई अता-पता ही नहीं होता है। रटने वाला होमवर्क दे दिया जाता है जैसे बच्चा रखकर टीचर को सुना दे, भले ही वह कुछ दिन बाद भूल जाए। दरअसल शिक्षा व्यवस्था बदला है लेकिन शिक्षण व्यवस्था नहीं बदल पाई है। एशिया के कई देशों में वही पुरानी पद्धति वाली शिक्षा व्यवस्था अभी भी चल रही है। भारत भी इनमें से कोई अछूता नहीं है।
दरअसल आपको बता दे की होमवर्क जिसे हम हिंदी में गृह कार्य करते हैं वह तब तक कारगर नहीं है जब तक बच्चा स्कूल में अच्छी तरीके से सीख नहीं जाता है। असल में बच्चों के पास घर पर काम करने के लिए समय ही नहीं होता है। वह अपने खाने पीने और मनोरंजन के समय या फिर खेलने के समय में अगर होमवर्क करता है तो उसका मन होमवर्क में नहीं लगता है बल्कि कहीं कहीं तो यह देखने को मिलता है की माता-पिता ही बच्चों के होमवर्क कर देते हैं या फिर होमवर्क करने के लिए ट्यूशन टीचर को रखा जाता है।
अक्सर आपसे होमवर्क पर विवाद भी होने लगा है ऐसे में होमवर्क पर प्रतिबंध क्यों लगाना चाहिए इस पर 10 कारण हम आपको बताने जा रहे हैं।
होमवर्क के कारण मानसिक और शारीरिक थकान
अब आपको बता दे कि अगर होमवर्क मिलता है, इसे करने के लिए स्कूल के अलावा अतिरिक्त समय चाहिए ऐसे में बच्चा मानसिक और शारीरिक थकान का अनुभव करता है। अधिक दबाव वाला होमवर्क कितना खतरनाक है इसके बारे में एक रिसर्च से समझा जा सकता है।
स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में एक होमवर्क रिसर्च में पाया गया कि 56% छात्र मानते हैं कि होमवर्क के कारण उन्हें तनाव मिलता है। यानी उनके जीवन में तनाव का प्राथमिक स्रोत होमवर्क है। व्हाय अमेरिका की साइकोलॉजिकल एसोसिएशन मैं अपने एक रिपोर्ट में बताया कि लंबे समय तक तनाव से पीड़ित किशोर में सिर दर्द नींद की कमी और तेजी से वजन घटने की समस्या भी हो जाती है।
इन रिसर्च पर यदि हम गंभीरता से सोच तो आपको पता चल ही जा रहा है कि पढ़ाई का दबाव और होमवर्क का टेंशन वास्तव में बच्चों को बीमार बना रहा है।
होमवर्क से होने वाले नुकसान को समझने से पहले जानिए होमवर्क का उद्देश्य क्या है
मैं अपने लेख में इस बात को बताने पर ज्यादा जोर दे रहा हूं कि होमवर्क का एक लक्ष्य होता है लेकिन भारत में और दूसरे देशों में होमवर्क केवल एक फैशन बनकर रह गया है। दरअसल होमवर्क के जरिए लंबे चौड़े सिलेबस को पूरा करने की एक बड़ी चाल छिपी रहती है। आधुनिक समय में आज टेक्नोलॉजी के बढ़ने के कारण कई तरह के सब्जेक्ट से और टेक्निकल नॉलेज सामने आया है। इस वजह से मोरल वैल्यू से लेकर जीके तक के अलग-अलग सिलेबस और कक्षाएं चलने लगी है। यह चुनौतीपूर्ण कक्षाओं का सिलेबस पूरा करने के लिए होमवर्क पद्धति बहुत तेजी से बढ़ा है। अब आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की भी पढ़ाई कंप्यूटर के साथ हो रही है और उसमें भी होमवर्क का चलन बहुत तेजी से बढ़ गया है। इस तरह से देखा जाए तो बेवजह के विषयों के कारण होमवर्क लक्ष्य से भटक गया है। मोरल वैल्यू और जीके इसके अलावा और आवश्यक प्रोजेक्ट कार्य भी होमवर्क की कड़ी में सबसे आगे नजर खड़े आते हैं। दरअसल गृह कार्य यानी होमवर्क अपने लक्ष्य से भटक गया है।
सामान्य ज्ञान और नैतिक शिक्षा का भी लिखित होमवर्क दिए जाते हैं, जो बड़ा ही हास्यास्पद है। विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के साथ भाषा विषयों में स्वयं ही सामान्य ज्ञान छिपा होता है। इसे अलग से पढ़ने वाली संस्कृति, जो कक्षा आठवीं तक पल-बढ़ रही है। यह केवल शिक्षा के बजारीकरण के कारण हो रहा है।
होमवर्क का लक्ष्य होता है
होमवर्क का लक्ष्य सीखने में सहायता करना होता है। लेकिन ढेर सारा होमवर्क जब बच्चे को दे दिया जाता है तो होमवर्क उसे बच्चों में हावी हो जाता है। उसका डर एक फोबिया के रूप में सामने आता है। कई रिसर्च से यह बातें सामने आई है। किसी दिन पांचो विषय हो या उससे अधिक विषयों का होमवर्क अगर एक-एक पन्ने का भी मिल जाता है तो 5 से 6 पाने का या होमवर्क बच्चों के लिए दर का एक सबक बनकर रह जाता है। अंग्रेजी होमवर्क ना कर पाने के कारण बच्चा स्कूल से अनुपस्थित हो जाता है। दरअसल 6 से 7 घंटे स्कूल में बिताने के बाद उसके साथ ही 2 घंटे वह स्कूल आने जाने में बिताने के बाद अब उसके पास जो समय बचता है, खेलने कूदने और परिवार और समाज में घुलने मिलने के लिए वह समय होमवर्क रूपी राक्षस का जाता है।
होमवर्क रचनात्मक और तार्किक शक्ति की विकास वाला होना चाहिए
वैसे कई शिक्षकों और विद्वानों का मानना है कि होमवर्क कक्षा आठवीं तक के बच्चों के विकास में बड़ा बड़ा बन सकता है। शारीरिक और मानसिक रूप से स्कूल के बाद जो अवकाश से उन्हें मिलता है, उसमें होमवर्क अगर करना पड़े तो बच्चे तनाव में हो जाते हैं। वहीं कुछ शिक्षकों और विद्वानों का मानना यह भी है कि कम मात्रा में होमवर्क एक स्मार्ट तरीका पढ़ने के लिए हो सकता है।
- होमवर्क रोचक और आसपास के वातावरण को समझने वाला और निरीक्षण करने वाला होना चाहिए।
- जैसे की कहानी कहना।
- गणित का व्यावहारिक उपयोग।
- भाषा विषय में कहानी और कविता रचना, उसे पर स्वतंत्र होकर अपने विचार बोलकर रिकॉर्ड करना।
- कैमरे के सामने पाठ को विभिन्न अंदाज में स्पष्ट उच्चारण सहित पढ़ना और रिकॉर्ड करना।
- कला विषय दूसरे विषयया फिर चित्र बनाना उसे सजाना और उसके बारे में थोड़ी जानकारी लिखना।
- वर्ग पहेली पूरी करना।
- रोजमर्रा के जीवन में नए शब्दों को सीखने पर उसकी एक लिस्ट बनाकर हफ्ते में उसे भाषा शिक्षण के सामने प्रेजेंट करना और उस पर कक्षा में चर्चा होना।
- इस तरह के रोचक और अलग-अलग तकनीक का प्रयोग करने वाले रचनात्मक होमवर्क बच्चों के अंदर तनाव को काम करता है। थोड़े से होमवर्क से बच्चे घर पर अनुशासित होकर होमवर्क की मदद से कुछ नया सीखते हैं। इस तरह के होमवर्क बड़े ही फायदेमंद साबित होते हैं।
होमवर्क के का बुरा प्रभाव
- अब आपको बता दे की होमवर्क के कई साइड इफेक्ट है जिसके बारे में यहां चर्चा करना जरूरी है। भगवान ने एक दिन में 24 घंटे दिए हैं अगर आप इसका बंटवारा करें तो इस बात को आप बिल्कुल सही तरीके से समझ सकते हैं। वही आपको बता दे कि अक्सर लोग हम पर के पक्ष में तरह-तरह की बातें बताते हैं लेकिन आपको इस बात पर गौर करना है।
- हमारे 24 घंटे में कम से कम 8 घंटे सोने के लिए होते हैं जबकि किशोर और बच्चों के लिए सोने के घंटे 10 घंटे भी हो सकते हैं। ताकि उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव ना पड़े। बचे हुए 16 घंटे में वे लगभग 6 घंटे से 7 घंटे विद्यालय में रहते हैं। लेकिन थोड़ा गहराई से यदि आप सोच तो विद्यालय जाने और आने में 2 घंटे से अधिक समय लग जाता है।
- दरअसल बाजारीकरण शिक्षा के दौरान निजीकरण स्कूल की चाहत में बच्चे 10 से 20 किलोमीटर या उससे अधिक किलोमीटर का सफर रोजाना स्कूल के लिए आने जाने में तय करते हैं। इसके साथ ही वे ट्रैफिक में फंस जाते हैं इस तरह से स्कूल में बिताने वाले घंटे के अलावा दो से तीन घंटे स्कूल से घर में आने जाने में लग जाता हैं। अगर हम उनके स्कूल के 6 घंटे में 2 घंटे और मिला दे तो कुल 8 घंटे वह केवल पढ़ाई और पढ़ाई के लिए आने-जाने में खर्च करते हैं। इसके बाद थका हुआ बच्चा अपने थके हुए दिमाग और शरीर के साथ जब घर पर पहुंचता है तो उसे होमवर्क का डर मन ही मन मानसिक रूप से परेशान करता है। बचे हुए 8 घंटे में उसे अपने लिए खेलने के लिए समय निकालना है।
- घर परिवार में बैठकर बातचीत और भोजन करने के लिए समय इसी 8 घंटे में से निकलना है। अधिकांश बच्चे ट्यूशन कोचिंग भी जाते हैं जिसके आने-जाने और कोचिंग में पढ़ने में कुल 2 घंटे का समय बर्बाद होता है। इसके साथ ही बच्चा 2 घंटे ट्यूशन और स्कूल के होमवर्क को पूरा करता है। भारतीय शहरों के बच्चों की दिनचर्या है। ग्रामीण क्षेत्र के बच्चों की भी दिनचर्या लगभग इसी दिनचर्या से मिलती-जुलती है।
- ऐसा लगता है कि बच्चा पढ़ नहीं रहा है बल्कि पढ़ाई का बोझ ढो रहा है। एक मजदूर की तरह आता है और काम करता है फिर उसके बाद सो जाता है अगले दिन अपने स्कूल जाने के लिए रवाना हो जाता है। आप किसी बच्चे के बैग को उठाकर 10 मिनट चलाकर देखी निश्चित तौर पर आप कोई एहसास हो जाएगा कि उसके बस्ते का बोझ कितना वजनदार है। जब आप बैक खोलेंगे तो मोती-मोती किताबें नजर आएंगी जिसमें एक किताब उठेंगे तो आधा किलो आलू आप आसानी से तौल लेंगे। कक्षा छठवीं के विद्यार्थी के पूरे पीरियड के कितबों का वजन करेंगे तो निश्चित ही यह 8 से 10 किलो का मिलेगा जिसमें आपको टिफिन और पानी का बोतल भी तराजू में रखना होगा।
- यानी कि एक बच्चे के जीवन में बेस्ते के बोझ के साथ-साथ होमवर्क का बोझ भी शामिल है इसके साथ ही उसके पास ना खेलने का अवसर है। इतना टाइट शेड्यूल वाला भारतीय बच्चा शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान हो रहा है। होमवर्क के बोझ के दबे तले बच्चे के बारे में हम उतने जागरूक नहीं है जितने जागरूक पश्चिमी देशों की सरकारें हैं।
बच्चों की पढ़ाई के लिए समय पर दूसरे महत्वपूर्ण काम के लिए समय नहीं
बात तो वहां आकर अटक गई है कि आखिर उसके 8 घंटे स्कूल में पढ़ने और स्कूल से घर आने के इस समय में और उससे पहले 8 घंटे की नींद के कुल 16 घंटे के समय में 24 घंटे में 8 घंटे जो बचता है वह ट्यूशन और होमवर्क के हवाले चला जाता है। बचे हुए 8 घंटे में वह आराम करके खेलने की चाहत रखता है लेकिन स्कूल का होमवर्क और ट्यूशन उसके समय को चुराकर उसे बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास में बड़ी बाधा बनती है। इसके बारे में कई बार रिसर्च से स्पष्ट हो चुका है।
मानसिक रूप से थका हुआ बच्चा अपने होमवर्क को किस तरीके से पूरा कर सकता है यह बात समझ से परे है लेकिन वह लगातार मानसिक दबाव के कारण बालक अपनी पढ़ाई से दूर होने लगता है। पढ़ाई के बोझ और होमवर्क के कारण बच्चों में पढ़ाई के प्रति रुचि कम होती चली जाती है ऐसे में 80% से अधिक बच्चे पढ़ाई के रोचक ना होने के कारण पढ़ने में मन नहीं लगा पाते हैं।
बच्चों की शैक्षणिक गतिविधि के अलावा भी है उनका संसार
- उपरोक्त हेडिंग के जरिए हम यहां स्पष्ट रूप से बता दे की होमवर्क शैक्षिक गतिविधि के अंतर्गत आता है। शिक्षा का मतलब कक्षा में बैठकर केवल किताब और पेंसिल के सहारे लिखना या कलम चलाना नहीं होता है इसका एक समय स्कूल में निर्धारित है लेकिन उसके अलावा रचनात्मक गतिविधि भी होनी जरूरी है। शिक्षा केवल स्कूलों के बंधन में बांधने वाली गतिविधि नहीं है बल्कि समाज व परिवार से जुड़ने के लिए पर्याप्त समय बच्चों को मिले यह भी शिक्षा है।
- अक्सर आपने यह सुना होगा कि लगातार पढ़ने वाला बच्चा सामाजिक बुद्धि में पीछे हो जाता है। सामाजिक और पारिवारिक जीवन का भी बहुत महत्व एक बच्चे के लिए होता है। अपने माता-पिता मित्रों सगे संबंधियों और पड़ोसियों के साथ उसके संबंध आगे चलकर कितने बेहतर बनते हैं। वह उसकी अकादमिक गतिविधियों से अलग घर पर दी जाने वाली माता-पिता द्वारा संस्कार पर भी निर्भर करता है। लेकिन आधुनिक शिक्षा में सिलेबस का बोझ और ढेर सारे किताबों का बढ़ता प्रभाव बच्चों को केवल नॉलेज का केंद्र बनाकर रख दिया है। ऐसे में होमवर्क प्रणाली बच्चों के विकास में पूर्ण रूप से बड़ा है।
शिक्षा का बढ़ता बोझ बच्चों की विकास में बाधा
हम एक ऐसे समझ में रहते जहां विविधता पूर्ण है। जहां जीने के लिए सामाजिक चुनौतियां हैं। सामाजिक वातावरण और व्यवहार कुशलता केवल विद्यालय की चार दिवारी में ही नहीं सीखी जा सकती है बल्कि इसके लिए परिवार और समाज से घूमने मिलना भी बच्चों के लिए आवश्यक हो जाता है। परंतु शिक्षा की जो प्रणाली चल उठी है जिसमें बच्चों को एक कमरे में बंद करके शिक्षा देने की बात की वकालत की जाती है वह निश्चित ही बच्चों को सामाजिक बुद्धि के विकास में उन्हें दूर ले जाती है।
हालांकि इस नई शिक्षा नीति में इस बात का बिल्कुल ख्याल रखा गया है कि शिक्षा रोचक और गतिविधियों पर आधारित हो इसके लिए शिक्षक कई तरह के प्रयोग कर रहे हैं। लेकिन हमारे समाज में एक ऐसा समाज भी पल रहा है जो शिक्षा को चार दीवारों में जकड़कर होमवर्क प्रणाली और ट्यूशन कोचिंग के बंधन की जकड़न में कैद करना चाहता है। वह पूरे समाज को केवल एक भाषा के बंधन में बांधकर बच्चों के करियर को बढ़ाना चाहता है। जबकि हर बच्चा अपने आप में अलग होता है। उसकी रुचि और सीखने की क्षमता के अनुसार ही उसके करियर का निर्धारण करना चाहिए। लेकिन कुछ माता-पिता और विद्वान बहुत ही संकीर्ण मानसिकता के साथ यह सोचते हैं कि यदि बच्चे को अपने करियर में सफल होना है तो उन्हें होमवर्क और अधिक से अधिक ट्यूशन कोचिंग के शरण में जाना होगा। वैसे यह बात मैं आपके ऊपर छोड़ता हूं कि आपको क्या इस बात से सहमत है?
गुणवत्ता वाली नींद पर पड़ रहा है प्रभाव
पढ़ाई की घंटे अधिक थकान भारी होने के कारण उसे पर होमवर्क और ट्यूशन कोचिंग के दबाव के कारण (Why has homework become a problem) बच्चों की गुणवत्ता वाली नींद हो रही है प्रभावित। मोबाइल और टीवी के चक्रव्यूह में फंसे हुए बच्चे गुणवत्ता वाली नींद भी नहीं ले पा रहे हैं जिसके कारण बहुत ही हानिकारक परिणाम आ रहे हैं। इसके बारे में एक रिसर्च के जरिए मैं आपके सामने कुछ आंकड़े रखने जा रहा हूं।
बच्चा एक असाइनमेंट करने में रात-रात भर जागता है। 5 से 6 विषयों के असाइनमेंट के पूरे पन्ने करते-करते हुए हर रात जाग-जाग कर अपनी नींद को खराब करता है। अगले दिन सुबह वह डरते हुए विद्यालय पहुंचता है। अब सवाल उठता है कि बच्चे साल भर पढ़ाई के टाइट शेड्यूल के कारण रात-रात भर जागते हुए नजर आते हैं। अगले दिन स्कूल के पहले और दूसरी पीरियड में बेंच पर सिर रखकर ऊंघने लगते हैं।
मानसिक रूप से थके बच्चे पढ़ाई से जी चुराने लगता है। स्कूल की आठ पीरियड की पढ़ाई उन्हें बोझ की तरह लगने लगती है। ब्लैकबोर्ड और लेक्चर की इस पढ़ाई (Education) में वह ऊबने लगते हैं। कम नींद स्वास्थ्य के लिए समस्या बन जाती है।
एक रिसर्च के मुताबिक नींद की कमी की वजह से कक्षा में बच्चे थकान महसूस करने लगते हैं।
बच्चा पूरी नींद नहीं ले पता है तो अगले दिन कक्षा में उसकी सोच, याद रखने की क्षमता और मूड पर प्रभाव पड़ता है।
यहां एक रिसर्च के हवाले से मैं बताना चाहता हूं कि जीडीएस (GDS) का एक रिसर्च हाईस्कूल के 10 में से 7 छात्रों पर किया गया। होमवर्क और असाइनमेंट के कारण यह बच्चे 8 से 10 घंटे के निर्धारित नींद नहीं ले रहे थे। यहां बता देना या उचित है कि किशोरी के लिए 8 से 10 घंटे सोना स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है।
वहीं से कम नींद लेने पर उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। यही बात रिसर्च में सामने आई कि कम नींद की वजह से शिक्षा ग्रहण करने में छात्रों को परेशानी होती है, इसके साथ ही स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
योग- व्यायाम के लिए नहीं मिलता है समय
भारत में योग शिक्षा को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। स्कूलों के टाइट शेड्यूल में योग के कक्षा कितनी होती है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। एजुकेशन पॉलिसी में बच्चों पर शिक्षा के दबाव को कम करने की भरसक कोशिश की गई है। परंतु बाजार बाद में जीने वाले कुछ संभ्रांत लोग की सोच आप नहीं बदल सकते हैं।
प्रतियोगिता का डर बच्चों को गलत दिशा में ले जा रहा है
- प्रतियोगिता का दबाव बच्चों को समय से पहले परिपक्व बना रहा है। बच्चों में जो मासूमियत होनी चाहिए वह गायब हो रही है। इसका सीधा दोष हम विद्यालयों पर मढ़ नहीं सकते हैं, बल्कि इसके लिए आज की इंटरनेट की दुनिया है। दरअसल मोबाइल की सोशल मीडिया और रील विडियो की दुनिया बच्चों का बचपना छीन रहा है। ऑनलाइन गेम, ऑनलाइन अपरिचित सेचैटिंग और हिंसा भरे अनैतिक कंटेंट देखने के कारण बच्चा अपने समय से अधिक परिपक्व और अनैतिक होता चला जा रहा है। इसी वजह से समाज और विद्यालय में उसका अनुशासन अनुशासनहीनता में बदल रहा है। बात-बात पर बच्चा अब अपने से बड़ों से बहस करना सीख गया है। अभी पढ़ाई की दुनिया में उसका पहला या दूसरा कदम ही होगा कि वह कुतर्क करके स्वयं की बात मनवाने में अव्वल हो गया है और उनके आगे उनके अभिभावक माता-पिता नतमस्तक हो रहे हैं।
- शिक्षा के जरिए हम बच्चे को अनुशासित बना सकते हैं परंतु समाज में बढ़ रहे हिंसक और अनैतिक कंटेंट इसमें सबसे बड़ी बाधा है। हम जैसा व्यवहार घर पर बच्चों के साथ करते हैं या किसी और के साथ बच्चे भी वैसा ही रिएक्ट समाज और विद्यालय में करते हैं। वही या बात बताना भी निश्चित ही सही है कि इंटरनेट पर मिलने वाली सामग्री बच्चों के विकास को प्रभावित कर रहा है उन्हें अनैतिकता, अनुशासन एवं कुमार्ग पर ले जा रहा है।
एजुकेशन का प्रेशर बच्चों के शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य पर डाल रहा है उल्टा प्रभाव
- शिक्षा के दबाव के कारण बच्चों को खेलने कूदने का समय भी नहीं मिलता है। एक रिसर्च के मुताबिक 5 से 18 साल तक के उम्र के बच्चों को कम से कम 60 मिनट की रोजाना मध्यम गति और तीव्र गति का व्यायाम करना चाहिए। जिससे उनकी शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य उत्तम होता है। परंतु शिक्षा देने की ऐसी भाग दौड़ की व्यवस्था शिक्षण संस्थानों से लेकर लोगों के बीच बनी गलत धारणा है जिसके कारण खेल का स्थान बच्चों के जीवन में काम होता चला जा रहा है। इस कारण से बच्चों को खेलने और कूदने के साथ ही व्यायाम करने का समय होने नहीं मिल पाता है। अगर समय भी मिलता है तो उसे समय में बच्चे घर के अंदर बैठे मोबाइल देखते हैं या फिर कोचिंग-ट्यूशन की ओर प्रस्थान कर जाते हैं।
- सर्दियों के दिनों में सूरज की रोशनी भी बहुत कम मिलती है। पढ़ाई करते हुए बच्चे 6 घंटे क्लास रूम के कमरों में रहते हैं। खेल के मैदान में उनका समय कुछ ही मिनट का होता है। इसके बाद छुट्टी होने पर जब भी घर पर पहुंचते हैं तो लगभग शाम की स्थिति हो जाती है। शाम को 5:00 बजे भी ट्यूशन कोचिंग की राह में फिर कमरों में कैद हो जाते हैं। तब तक शाम हो जाती है और सर्दी के दिनों में वह लगातार कमरों में बंद रहते हैं। सर्दी की दिनचर्या में खेलकूद लगभग ना के बराबर होता है। हालांकि शिक्षा नीति में खेलकूद को महत्व दिया गया है इनकी कक्षाओं की गाइडलाइन दी गई है लेकिन पढ़ाई को अलग-अलग विषयों के बोझ में इतना लपेट दिया गया है कि बाजारवाद की शिक्षा बच्चों के साथ अन्याय कर रही है।
इस कारण से भारत के बच्चे बीमार पड़ रहे हैं। दरअसल यही उम्र होता है बच्चों की मांसपेशियां मजबूत होने और हड्डियों का सही विकास होने का समय होता है लेकिन कमरों में 24 घंटे बैठने और टीवी मोबाइल को निहारने के कारण उनके शारीरिक और मानसिक विकास में बाधा पहुंचती है।
दरअसल इसके लिए जिम्मेदार शिक्षा प्रणाली में होमवर्क प्रणाली के साथ दबाव वाली शिक्षा व्यवस्था है जिस कारण से बच्चे का समय उनके दूसरे गतिविधियों के लिए नहीं मिल पाता है।
पढ़ाई के बोझ के तरह अधिक चिंता और तनाव में बच्चा
वर्तमान स्थिति में देखा जाए तो पढ़ाई की बोझ की चिंता में बच्चा तनाव की अवस्था में आ जाता है। पेन कॉपी की की लिखित परीक्षा और उससे पहले असाइनमेंट की भाग दौड़ के चलते बच्चे काफी समय तक चिंता और तनाव में अपने होमवर्क को पूरा करते हुए नजर आते हैं।
होमवर्क ऐसा होता है जिसमें शारीरिक गतिविधियां बिल्कुल ना के बराबर होती है। कमरों के अंदर बैठकर कुर्सियों पर बैठा बच्चा लिखता रहता है। शारीरिक क्षमताओं के विकास पर ध्यान नहीं दिया जाता है। केवल उनकी वजन और ऊंचाई नाप कर स्वास्थ्य चेकअप करने की खानापूर्ति होती हुई नजर आती है।
योग – व्यायाम जैसे व्यवहारिक अभ्यास जहां स्कूल के मैदान या प्रांगण में होना चाहिए उनकी कक्षाएं केवल सैद्धांतिक रूप से होकर खत्म हो जाती है। विज्ञान की पढ़ाई में प्रैक्टिकल के महत्व को एक दो क्लास में ही समेट कर रख दिया जाता है और सैद्धांतिक कक्षाओं के द्वारा प्रैक्टिकल को समझाया जाता है। हालांकि कुछ शिक्षण संस्थानों में प्रैक्टिकल के लिए समय और कक्षाओं का निर्धारण उचित ढंग से होता है लेकिन अधिकांश जगह इस पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
लगातार कॉपी पेन के जरिए होने वाली टेस्ट बच्चों के लिए एक डर का माहौल पैदा करता है।
हालांकि कई मौखिक और अभ्यास गतिविधियों के जरिए परीक्षा कराकर उनका मूल्यांकन भी किया जा सकता है। लेकिन इस तरह के मूल्यांकन पर पारंपरिक सोच रखने वाले शिक्षक और अभिभावक सहमत नहीं होते हैं। फिर वही बाजार वाली शिक्षा बाजार रूप में नजर आती है। जैसे किसी शिक्षण संस्थान में उपभोक्ता और दुकानदार का संबंध होता है वैसे शिक्षा प्रणाली समानांतर रूप से चल रही है जो समाज और देश के लिए घातक साबित हो रही है।
अगर आप कमेंट करेंगे तो शिक्षा से सबंधित दूसरी समस्याओं के पहलू पर भी ले प्रस्तुत किया जाएगा। आप अपने अमूल्य सुझाव भी दे सकते हैं।